Wednesday, September 28, 2011

जे. पी. टी-स्टाल

फिर, चित्तकबरी धूप में 
छाँव ढूंढती है ज़िन्दगी,
समय की कल-कल में फिर
एक पड़ाव ढूँढती है ज़िन्दगी

फुटपाथ से रुख्सत होती धूप की
कुछ मूक अर्जियों में 
कोई आस ढूँढती है ज़िन्दगी,
कढ़ी हुई चाय की सुड़कियों के बीच
पकी शक्कर की कड़वी महक में
वही पुरानी प्यास ढूँढती है ज़िन्दगी

ठिठुरती शाम के कागार पर बैठ 
चुपचाप कुछ सोच रही गर्माहट का
एहसास ढूँढती है ज़िन्दगी,
चमचमाती गाड़ियों पर जम रही 
मरम्मत की धूल में 
कण-कण संवरता
बिखरता/ इतिहास ढूँढती है ज़िन्दगी,
इश्तिहारों, विचारों, गुनाहगारों, रोज़गारों में
रोजाना के इत्तेफ़ाकों के व्यापारों में
अपना ही परिहास ढूँढती है ज़िन्दगी

प्रेम के अल्फ़ाज़ों में/ छटपटाते  दरवाज़ों में 
किसी पुरानी फ़िल्म के गीत सा 
ठहराव ढूँढती है ज़िन्दगी,
तेरी आँखों के पैमाने में, फिर 
कोई मृदु भाव ढूँढती है ज़िन्दगी/
इस अकेली तालाश में 
खुद से ही जूझती है 
ज़िन्दगी

फिर, चित्तकबरी धूप में 
छाँव ढूंढती है ज़िन्दगी.