पीछे छूट गयी है
बाहर जाते लोगों की बुदबुदाहट के,
रह गयी है बैठी
खाली कुर्सियों से भरे
कमरे में
लकड़ी के हत्थों पर
धीरे-धीरे अपने हाथ पसारती है,
धीरे-धीरे
रीढ़ सीधी करती है अपनी,
फिर आराम से आसीन हो लेती है
कुर्सी पर
अकेलापन आश्वासन देता है -
अपनी मर्ज़ी की मालकिन है अब,
कोई छेड़ेगा नहीं,
नहीं परखा जायेगा बात-बात पर,
नहीं होगी विवेचना
उसकी संवेदनाओं की,
अपने निजित्व में
इस एकांत में अब वह
खुलकर मखौल उड़ाएगी अपना ही-
स्वछंद पंछी सी उड़ेगी बंद दरवाजों के अभ्यारण्य में
अब डर नहीं है दलीलों का
उफनते जज़्बातों की कर्कशता का,
अब नहीं याद रखने पड़ेंगे शर्म के मायने,
जी चुराकर
नहीं चुरानी पड़ेंगी नज़रें -
कुछ खटका सा हुआ -
सहमी सी आसपास देखती है,
अकेले होने के भ्रम में
वह अकेली नहीं है,
खचाखच भरा है कमरा/ सभी कुर्सियों पर
उसी के जैसी बैठी हैं
स्वप्न भंवर में तल्लीन
अचानक ही
अपनी गद्दी के कोने पे
खुद को बैठा पाती है वो
किसी अभिन्न अनहोनी की अपेक्षा में -
आखिर
यही नियति है
कसक की
बाहर जाते लोगों की बुदबुदाहट के,
रह गयी है बैठी
खाली कुर्सियों से भरे
कमरे में
लकड़ी के हत्थों पर
धीरे-धीरे अपने हाथ पसारती है,
धीरे-धीरे
रीढ़ सीधी करती है अपनी,
फिर आराम से आसीन हो लेती है
कुर्सी पर
अकेलापन आश्वासन देता है -
अपनी मर्ज़ी की मालकिन है अब,
कोई छेड़ेगा नहीं,
नहीं परखा जायेगा बात-बात पर,
नहीं होगी विवेचना
उसकी संवेदनाओं की,
अपने निजित्व में
इस एकांत में अब वह
खुलकर मखौल उड़ाएगी अपना ही-
स्वछंद पंछी सी उड़ेगी बंद दरवाजों के अभ्यारण्य में
अब डर नहीं है दलीलों का
उफनते जज़्बातों की कर्कशता का,
अब नहीं याद रखने पड़ेंगे शर्म के मायने,
जी चुराकर
नहीं चुरानी पड़ेंगी नज़रें -
कुछ खटका सा हुआ -
सहमी सी आसपास देखती है,
अकेले होने के भ्रम में
वह अकेली नहीं है,
खचाखच भरा है कमरा/ सभी कुर्सियों पर
उसी के जैसी बैठी हैं
स्वप्न भंवर में तल्लीन
अचानक ही
अपनी गद्दी के कोने पे
खुद को बैठा पाती है वो
किसी अभिन्न अनहोनी की अपेक्षा में -
आखिर
यही नियति है
कसक की
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