Tuesday, March 20, 2012

शहर अभी भी


जो थे रास्तों पे कल पल दो पल को
हैं वो आज बादल चाँद की चांदनी पर,
ये बिखरे हुए हैं सड़क पर जो पत्ते 
सूखे हुए / कल थिरकते थे न थमकर,
है सूरज नहीं तो ये रात काली
क्या नहीं छिप रही आकर आइनों में, 
क्या नहीं रुक रही हैं सांसें ज़रा भी, 
नहीं हो रहे क्या - तुम और मैं परस्पर

ये हवा है जो बहती/ संभली सी आहटों में 
क्या कदमों तले दबा कर छोड़ जाती 
है रात के दर पर दस्तक की आवाज़ें
गुपचुप ही सही / उजाले से थककर, 
क्या अब भी वही है तुम्हारी नम खुशबू 
रहती थी जो हमेशा इस हवा की सिहर में,
अब नहीं पास आना तो फिर खेल जाओ 
अधूरी सी चालें रात के साहिरों पर,
है शहर अभी भी, हैं रास्ते कि जिनमें 
घूमते अब भी बादल ज़रा रुककर / बरसकर, 
जो कल थीं पल दो पल को चाँद की चांदनी पे 
वो बूँदें हैं अब - तुम और मैं परस्पर

 

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